माँ काली चालीसा – अरि मद मान मिटावन हारी

Chalisa (चालीसा)

॥दोहा॥
जयकाली कलिमलहरण,
महिमा अगम अपार ।
महिष मर्दिनी कालिका,
देहु अभय अपार ॥

अष्टभुजी सुखदायक माता ।
दुष्टदलन जग में विख्याता ॥

दूजे हाथ लिए मधु प्याला ।
हाथ तीसरे सोहत भाला ॥4॥

सप्तम करदमकत असि प्यारी ।
शोभा अद्भुत मात तुम्हारी ॥

पतित तारिणी हे जग पालक ।
कल्याणी पापी कुल घालक ॥

तुम समान दाता नहिं दूजा ।
विधिवत करें भक्तजन पूजा ॥12॥

नाम अनेकन मात तुम्हारे ।
भक्तजनों के संकट टारे ॥

महिमा अगम वेद यश गावैं ।
नारद शारद पार न पावैं ॥16॥

आदि अनादि अभय वरदाता ।
विश्वविदित भव संकट त्राता ॥

ध्यान धरें श्रुति शेष सुरेशा ।
काल रूप लखि तुमरो भेषा ॥20॥

सेवक लांगुर रहत अगारी ।
चौसठ जोगन आज्ञाकारी ॥

खेला रण का खेल निराला ।
भरा मांस-मज्जा से प्याला ॥24॥

तब ऐसौ तामस चढ़ आयो ।
स्वजन विजन को भेद भुलायो ॥

तब मुख जीभ निकर जो आई ।
यही रूप प्रचलित है माई ॥28॥

करूण पुकार सुनी भक्तन की ।
पीर मिटावन हित जन-जन की ॥15॥

शुंभ निशुंभ हने छन माहीं ।
तुम सम जग दूसर कोउ नाहीं ॥32॥

दीन विहीन करैं नित सेवा ।
पावैं मनवांछित फल मेवा ॥17॥

प्रेम सहित जो कीरति गावैं ।
भव बन्धन सों मुक्ती पावैं ॥36॥

दया दृष्टि हेरौ जगदम्बा ।
केहि कारण मां कियौ विलम्बा ॥

सेवक दीन अनाथ अनारी ।
भक्तिभाव युति शरण तुम्हारी ॥40॥

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